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उपोसथ सुत्त

एक समय भगवान श्रावस्ती में मिगार माता के पूर्वाराम प्रसाद में विहार कर रहे थे । उस समय विसाखा मिगार-माता उपोसथ के दिन भगवान के पास गयी । जाकर अभिवादन कर एक और बैठ गयी । एक और बैठी मिगार-माता विसाखा को भगवान ने यह कहा— “ विसाखे ! आज तू दिन चढ़ते कैसे आयी ?”

“ भंते ! आज मैंने उपोसथ रखा है ।”

“ विसाखे ! उपोसथ तीन प्रकार का होता है । कौन से तीन प्रकार का ?
गोपाल-उपोसथ, निर्ग्रंथ-उपोसथ तथा आर्य उपोसथ ।

“ विसाखे ! गोपाल-उपोसथ कैसा होता है ? 

विसाखे ! जैसे कोई ग्वाला शाम को मालिकों को उनकी गौवे सौंप कर यह सोचे कि आज इन गौवों ने अमुक-अमुक जगह चराई की, अमुक-अमुक जगह पानी पिया । कल ये गौवे अमुक-अमुक जगह चरेगी, अमुक-अमुक जगह पानी पियेगी । इस प्रकार विसाखे ! यहाँ कोई उपोसथ करने वाला ऐसा सोचता हैं—आज मैंने यह-यह खाया तथा यह-यह भोजन किया । कल मै यह-यह खाऊंगा तथा यह-यह भोजन करूँगा । वह उस लोभयुक्त चित से दिन गुजार देता हैं । विसाखे ! इस प्रकार यह गोपाल-उपोसथ होता है । विसाखे ! इस प्रकार के गोपाल-उपोसथ का न महान फल होता है, न महान लाभ होता है, न तो यह महान प्रकाश वाला होता है और न बहुत दूर तक व्याप्त होने वाला होता है ।

“ हे विसाखे ! निर्ग्रंथ-उपोसथ कैसा होता है ?”

“ हे विसाखे ! निर्ग्रंथ नामक श्रमणों की एक जाति है, वे अपने मतानुयायिओ को इस प्रकार उपदेश देते है – “ हे पुरुष ! तू आ । पूर्व दिशा में सौ योजन से अधिक योजन तक ( सौ योजन से परे ) जितने प्राणी है तू उन्हें दण्ड से मुक्त कर, पश्चिम दिशा में सौ योजन से अधिक योजन तक जितने प्राणी है तू उन्हें दण्ड से मुक्त कर, उत्तर दिशा में सौ योजन से अधिक योजन तक जितने प्राणी है तू उन्हें दण्ड से मुक्त कर तथा दक्षिण दिशा में सौ योजन से अधिक योजन तक जितने प्राणी है तू उन्हें दण्ड से मुक्त कर । इस प्रकार कुछ प्राणियों के प्रति दया उपदेशित करते है, कुछ के प्रति दया उपदेशित नहीं करते । वे उपोसथ-दिन पर श्रावक को इस प्रकार उपदेश करते है –“ हे पुरुष ! तू आ । सभी वस्त्रो लो त्याग कर इस प्रकार कह –“ न मैं कही, किसी का कुछ हूँ, और न मेरा कही, कोई कुछ हैं ।” किंतु उसके माता पिता जानते है कि यह मेरा पुत्र है और पुत्र भी जानता है कि ये मेरे माता पिता है । उसके पुत्र और स्त्री उसे पिता और पति के रूप में जानते है, और वह भी यह जानता है की ये मेरे पुत्र और स्त्री है । उसके दास और नौकर-चाकर भी यह जानते है कि यह हमारा मालिक है और वह भी यह जानता है की ये मेरे दास-नौकर-चाकर है | इस प्रकार जिस समय सत्य उपदेश देना चाहिए उस समय झूठा उपदेश देते है, इसको मै उनका झूठ बोलना कहता हूँ । उस रात्रि के बीतने पर वह उन (त्यक्त) वस्तुओ को बिना किसी को दिए ही उपयोग में लाते है । इसको मै उनका चोरी करना कहता हूँ । इस प्रकार हे विसाखे ! यह निर्ग्रंथ-उपोसथ होता है । विसाखे ! इस प्रकार के उपोसथ का न महान फल होता है, न महान लाभ होता है, न तो यह महान प्रकाश वाला होता है तथा न बहुत दूर तक व्याप्त होने वाला होता है ।

“ हे विसाखे ! आर्य-उपोसथ कैसा होता है ?”

विसाखे! उपोसथ के दिन प्रातः समय आर्य-श्रावक बुद्ध, धम्म और संघ का अनुस्मरण करता है ।

अनुस्मरण करने से उसका चित्त प्रशांत होता है, आनंद उत्पन्न होता है, चित्त के मैल का प्रहाण होने लगता है ।

“ विसाखे ! वह आर्य-श्रावक यह विचार करता हैं –“ अर्हन्त जीवनभर प्राणी-हिंसा छोड़, प्राणी-हिंसा से विरत होकर, दण्ड-त्यागी, शस्त्र-त्यागी, पाप-भीरु, दयावान, सभी प्राणियों का हित और उन पर अनुकंपा करते विचरते है । मै भी आज की रात और यह दिन प्राणी-हिंसा छोड़, प्राणी-हिंसा से विरत होकर, दण्ड-त्यागी, शस्त्र-त्यागी, पाप-भीरु, दयावान, सभी प्राणियों का हित और उन पर अनुकंपा करते हुए विहार करूँ । इस अंश में भी मैं अर्हंतों का अनुकरण करने वाला हो जाऊंगा तथा मेरा उपोसथ पूरा होगा ।

“अर्हन्त जीवनभर चोरी करना छोड़, चोरी करने से विरत रह, केवल दिया ही लेने वाले, दिए की ही आकांक्षा करने वाले, चोरी न कर पवित्र जीवन बिताते है । मैं भी आज की रात और यह दिन चोरी करना छोड़, चोरी से विरत रह , केवल दिया ही लेने वाले, दिए की ही आकांक्षा करने वाले, चोरी न कर, पवित्र जीवन बिताऊ । इस अंश में भी मैं अर्हंतो का अनुकरण करने वाला होऊंगा तथा मेरा उपोसथ पूरा होगा ।

“अर्हन्त जीवनभर अब्रहमचर्य छोड़, ब्रहमचारी, अनाचार-रहित, मैथुन ग्रम्ये-धर्म से विरत रहते है । मैं भी आज की रात और यह दिन अब्रहमचर्य छोड़, ब्रहमचारी, अनाचार-रहित, मैथुन ग्राम्य-धर्म से विरत रहकर बिताऊँ । इस अंश में भी मैं अर्हंतो का अनुकरण करने वाला होऊंगा तथा मेरा उपोसथ पूरा होगा ।

“अर्हन्त जीवनभर मृषावाद छोड़, मृषावाद से विरत होकर, कभी झूठ न बोलने वाले दृढ़, विश्वसनीय तथा लोक को धोखा न देने वाले होकर रहते है । मैं भी आज की रात और यह दिन मृषावाद छोड़, मृषावाद से विरत होकर, कभी झूठ न बोलने वाले दृढ़, विश्वसनीय तथा लोक को धोखा न देने वाले होकर रहूँ । इस अंश में भी मैं अर्हंतो का अनुकरण करने वाला होऊंगा तथा मेरा उपोसथ पूरा होगा ।

“ अर्हन्त जीवनभर सुरा-मेरय-मद्य आदि प्रमादकारक वस्तुओ को छोड़, सुरा-मेरय-मद्य आदि प्रमादकारक वस्तुओ से विरत होकर रहते है । मैं भी आज की रात और यह दिन सुरा-मेरय-मद्य आदि प्रमादकारक वस्तुओ को छोड़, सुरा-मेरय-मद्य आदि प्रमादकारक वस्तुओ से विरत होकर रहूँ । इस अंश में भी मैं अर्हंतो का अनुकरण करने वाला होऊंगा तथा मेरा उपोसथ पूरा होगा ।

“अर्हन्त जीवनभर एकाहारी, रात्रि-भोजन-त्यक्त, विकाल-भोजन से विरत होकर रहते है । मैं भी आज की रात और यह दिन एकाहारी, रात्रि-भोजन-त्यक्त, विकाल-भोजन से विरत होकर बिताऊँ । इस अंश में भी मैं अर्हंतो का अनुकरण करने वाला होऊंगा तथा मेरा उपोसथ पूरा होगा ।

“ अर्हन्त जीवनभर नाचने, गाने, बजाने, तमाशे देखने, माला-गंध-विलेपन धारण-मंडन आदि जो विभूषित करने के सामान है उनसे विरत रहते है । मैं भी आज की रात और यह दिन नाचने, गाने, बजाने, तमाशे देखने, माला-गंध-विलेपन धारण-मंडन आदि जो विभूषित करने के सामान है उनसे विरत रहकर बिताऊँ । इस अंश में भी मैं अर्हंतो का अनुकरण करने वाला होऊंगा तथा मेरा उपोसथ पूरा होगा ।

“ अर्हन्त जीवनभर उच्च-शय्या, महा-शय्या को छोड़, उच्च-शय्या, महा-शय्या से विरत होकर, नीचा शयनासन – चारपाई या चटाई को ही काम में लाते हैं । मैं भी आज की रात और यह दिन उच्च-शय्या, महा-शय्या को छोड़, उच्च-शय्या, महा-शय्या से विरत होकर, नीचा शयनासन – चारपाई या चटाई को ही काम में लाऊं । इस अंश में भी मैं अर्हंतो का अनुकरण करने वाला होऊंगा तथा मेरा उपोसथ पूरा होगा।

उपोसथ करने का लाभ/फल

“ विसाखे ! इस प्रकार आर्य-उपोसथ होता है । विसाखे ! इस प्रकार रखा गया आर्य-उपोसथ महान फल वाला होता है, महान लाभ वाला होता है, यह महान प्रकाश वाला होता है तथा बहुत दूर तक व्याप्त होने वाला होता है ।

“कितने महान फल वाला होता है, कितने महान लाभ वाला होता है, यह कितने महान प्रकाश वाला होता है तथा कितनी बहुत दूर तक व्याप्त होने वाला होता है ?”

“ विसाखे ! जैसे कोई इन सोलह महान सप्त-रत्न महाजनपदो का ऐश्वर्यधिप्तय राज्य करे – जैसे अंगों का, मगधो का, काशियो का, कोशलो का, वज्जियो का, मल्लो का, चेदियो का, वंगो का, कुरुओ का, पंचालो का, मत्स्यो का, शोरसेनो का, अश्मको का, अवंतियो का, गांधारो का तथा कंबोजो का – वह अष्टांग उपोसथ के सोलहवी कला के भी बराबर नहीं होता । यह किसलिए विसाखे ! दिव्य-सुख की तुलना में मानुषी-राज्य बिचारे का कुछ मूल्य नहीं ।

“ विसाखे ! जितना समय मनुष्यों का पचास वर्ष होता है, वह चातुमहाराजिक देवताओ का एक रात-दिन होता है । उस रात से तीस रातो का महीना । उस महीने से बारह महीनो का वर्ष । उस वर्ष से पांच सौ वर्ष चतुम्म्हाराजिक देवताओ की आयु सीमा । विसाखे ! संभव हैं कि अष्टांगिक उपोसथ करने वाली स्त्री या पुरुष शरीर छुटने पर मरने के बाद चतुम्म्हाराजिक देवताओ का सहवासी हो जाये । विसाखे ! इस लिए यह कहा गया हैं की दिव्य-सुख की तुलना में मानुषी-राज्य बिचारे का कुछ मूल्य नहीं ।

“ विसाखे ! जितना समय मनुष्यों का सौ वर्ष होता है, वह तावतिंस देवताओ का एक रात-दिन होता है । उस रात से तीस रातो का महीना । उस महीने से बारह महीनो का वर्ष । उस वर्ष से एक हजार दिव्य वर्ष तावतिंस देवताओ की आयु सीमा । विसाखे ! संभव हैं कि अष्टांगिक उपोसथ करने वाली स्त्री या पुरुष शरीर छुटने पर मरने के बाद तावतिंस देवताओ का सहवासी हो जाये । विसाखे ! इस लिए यह कहा गया हैं की दिव्य-सुख की तुलना में मानुषी-राज्य बिचारे का कुछ मूल्य नहीं व

“ विसाखे ! जितना समय मनुष्यों का दो सौ वर्ष होता है, वह याम देवताओ का एक रात-दिन होता है । उस रात से तीस रातो का महीना । उस महीने से बारह महीनो का वर्ष । उस वर्ष से दो हजार दिव्य वर्ष याम देवताओ की आयु सीमा । विसाखे ! संभव हैं कि अष्टांगिक उपोसथ करने वाली स्त्री या पुरुष शरीर छुटने पर मरने के बाद याम देवताओ का सहवासी हो जाये । विसाखे ! इस लिए यह कहा गया हैं की दिव्य-सुख की तुलना में मानुषी-राज्य बिचारे का कुछ मूल्य नहीं ।

“ विसाखे ! जितना समय मनुष्यों का चार सौ वर्ष होता है, वह तुषित देवताओ का एक रात-दिन होता है । उस रात से तीस रातो का महीना । उस महीने से बारह महीनो का वर्ष | उस वर्ष से चार हजार दिव्य वर्ष तुषित देवताओ की आयु सीमा । विसाखे ! संभव हैं कि अष्टांगिक उपोसथ करने वाली स्त्री या पुरुष शरीर छुटने पर मरने के बाद तुषित देवताओ का सहवासी हो जाये । विसाखे ! इस लिए यह कहा गया हैं की दिव्य-सुख की तुलना में मानुषी-राज्य बिचारे का कुछ मूल्य नहीं ।

“ विसाखे ! जितना समय मनुष्यों का आठ सौ वर्ष होता है, वह निम्मान-रति देवताओ का एक रात-दिन होता है । उस रात से तीस रातो का महीना । उस महीने से बारह महीनो का वर्ष | उस वर्ष से आठ हजार दिव्य वर्ष निम्मान-रति देवताओ की आयु सीमा । विसाखे ! संभव हैं कि अष्टांगिक उपोसथ करने वाली स्त्री या पुरुष शरीर छुटने पर मरने के बाद निम्मान-रति देवताओ का सहवासी हो जाये । विसाखे ! इस लिए यह कहा गया हैं की दिव्य-सुख की तुलना में मानुषी-राज्य बिचारे का कुछ मूल्य नहीं ।

“ विसाखे ! जितना समय मनुष्यों का सोलह सौ वर्ष होता है, वह परनिम्मितवसवत्ती देवताओ का एक रात-दिन होता है । उस रात से तीस रातो का महीना । उस महीने से बारह महीनो का वर्ष । उस वर्ष से सोलह हजार दिव्य वर्ष परनिम्मितवसवत्ती देवताओ की आयु सीमा । विसाखे ! संभव हैं कि अष्टांगिक उपोसथ करने वाली स्त्री या पुरुष शरीर छुटने पर मरने के बाद परनिम्मितवसवत्ती देवताओ का सहवासी हो जाये । विसाखे ! इस लिए यह कहा गया हैं की दिव्य-सुख की तुलना में मानुषी-राज्य बिचारे का कुछ मूल्य नहीं ।

“प्राणी-हिंसा न करे, चोरी न करे, झूठ न बोले, मद्यप न होवे । अब्रहमचर्य, मैथुन से विरत रहे । रात्रि को विकाल भोजन न करे । माला न पहने । सुगंधि न धारण करे । मंच या बिछी-भूमि पर सोये । बुद्ध ने दुःख का अंत करने वाले इस अष्टांग-उपोसथ को प्रकाशित किया है । चन्द्रमा तथा सूर्य दोनों सुदर्शन है । वे जहा तक संभव है वहां तक प्रकाश फैलाते है | वे अन्तरिक्षगामी हैं । अंधकार के विध्वंसक हैं । वे आकाश की सभी दिशाओ को आलोकित करते है । और यहाँ इस बीच में जो कुछ भी मुक्ता, मणि तथा बिल्लौर धन, स्फटिक है, शुद्ध कंचन, स्वर्ण, जो जातरूप व हाटक भी कहलाता हैं, वह तथा चन्द्रमा का प्रकाश और सभी तारागण अष्टांग-उपोसथ पालन करने वाले के सोलहवें हिस्से के भी बराबर नहीं होते । इसलिए जो सदाचारी नर-नारी (गृहस्थ-गृहिणी / उपासक-उपासिकाएँ) हैं वे अष्टांग-उपोसथ का पालन कर तथा सुखदायक पुण्य-कर्म कर, अनिंदित रह, स्वर्ग-स्थान को प्राप्त होते हैं ।

From : अंगुत्तर निकाय.

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