कहाॅं ऑंसूवों की धारा है… तो कहाॅं बेशर्मी से नाचगानों का आलम…अशोक सवाई

(भयावह अकाल)
*गरींबों केऑंसू:* बरसात के इस मौसम में देश के कई हिस्सों में भारी मात्रा में वर्षा बरसी, बरस रही है। देश के कई राज्यों में बाढ़ आयी। कई जगहों पर बादल फटकर ज़मकर बरसे। कुछ इंसानों की मौतें हुयी। उनके जानवर बाढ़ में बह गये या मृत पाऍ गये। आवासों, मकानों का भारी नुकसान हुवा। सामान्य हाल का बेहाल हो गया। कई हेक्टर जमीन, ग्राम, शहर, स्कूलें किसानों की फ़सलों के साथ खेत खलियार भी पानी के नीचे चले गये। यह तब हुवा जब देश में त्योहार के दिन मनाऍ जा रहे थे। इस से कई ग्राम, शहरों में मातम छा गया। मानो अस्मानी संकट का कहर मच गया। सब तबाह हो गया। ग्राम और शहरवासी अपने ऑंसू बहा रहे है। उधर पानी का सैलाब और इधर ऑंसूओंका। कुछ गरीब बच्चों की, जैसी तैसी स्कूली शिक्षा शुरू थी, घर दार सब तितरबितर हो जाने के बाद वो भी बंद हो गयी। जिल्हा प्रशासन और सामाजिक संस्थाऍ राहत कार्यों में जुटें है। किसानों की फ़सले तयार हो रही थी। तभी भारी वर्षा का कहर टूट पडा। और देखते देखते ऑंखों के सामने तबाही मच गयी। किसानों और मज़दूरों का निवाला छीन लिया इस संकटने। जब खून पसीनों से उगाई फ़सलें ऑंखों देखा हाल तबाही का मंजर बन जाता है ना साहब… तब किसानों कों लगता है, जैसे उनके कलेजें पर कोई छुरीयाॅं चला रहा हो। रात दिन किसान अपनी फ़सलों की निगरानी करता है, तब वह यह नही देखता की पैरों के नीचे बिछ्छू आता है या सांप। अपनी जान की बाजी लगाकर फ़सलों की रख़वाली करता है। तभी हमें भोजन के लियें अन्न प्राप्त होता है। उसके पिछे किसान की कड़ी मेहनत होती है कदर दान, मेहरबान, हुजूर-ए-आज़म! उपर अस्मानी और निचे सुल्तानी संकट से किसान और फिर एक बार फ़ांसी का डोर गले में लटका कर लटकने पर मज़बुर होंगे सासब! उनके बच्चों के हातों में डिग्रीयाॅं होते हुवे भी उनके पास नौकरीयाॅं नही। नौकरी नही तो छोकरी भी उनको कोई देता नही। और बेचारें शादी-ब्याह करके भी क्या करेंगे? खुद्द का और नयी नवेली दुल्हन का पेट पालने, दानापानी की व्यवस्था और घरग्रहस्थी चलाने के लियें तो पैसा चाहिए ना? और पैसा कमाने के लिए रोजगार होना जरूरी होता है साहब…! करे तो क्या करे आज का नौजवान? हमारे पिछे आनेवाले गरीब बच्चों की दूर दरार की सरकारी पाठ शालाऍ सरकारने बंद कर दी। शिक्षा बंद करके उनको अपाईश बनाने की कोशिशें हो रही है साहब! सरकार की ग़लत नीतीयोंसे आम जनता का जिना मुश्किल हुवा है साहब! आखिर यह सब कब तक चलता रहेगा साहब? हमारे महाराष्ट्र के मराठवाडा और विदर्भ यह दो विभाग का हाल तो हमेशा के लिए अकाल का ही होता है। कभी सूखा तो कभी गीला। जादा तर सूखा ही। मानो प्रकृती की इन पर ख़प्पा मर्जी हो, नाराज़ हो। पिछले ग्यारह सालों में इन दो विभागों का हाल बद से बत्तर हो गया। देश में यही हाल रहा तो कैसा होगा साहब? ‘सबका साथ और सबका विकास कैसा होगा? देश कैसा ‘प्रगती पथ’ पर चलेगा? और कैसा बनेगा देश ‘विश्वगुरू?’ दुनिया आगे आगे दौड़ लागा रही और हम?… हम उलटी दिशा से पिछे पिछे… कोई भी मुल्क हमारा हाथ थामकर साथ लेने या देने के लिए तयार नही। दुनिया में हम बिलकुल अलग थलग पड गयें साहब! अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन हम किसी गुलामी के अंधकार में धकेल दिए जाएंगे। जो भयावह मंजर रहेगा।
*बेशर्मी से नाचगाना:* एक ओर देश की वो स्थिती है जो उपरी हिस्से में कही है। और दूसरी ओर किसी कट्टरपंथी शक्ती द्वारा बहकाऍ गये कुछ नवयुवकों का मस्तीभरा वास्तव है। नवरात्री उत्सव का बहाना बनाके बेधुंद होकर अपने नाचगानों में रात रात भर चूर होते है। बाकी दुनिया उनके लिए होती ही नही या मायने नही रखती। दुनिया से बेख़बर रहने वाले लोगों का पेट भरा हुवा होता है। मजदूर अड्डा और पेट की भूकी आग क्या चींज है उनको पता ही नही होती। रात रात भर डिजे की आवाज फूल्ल कर के मस्तीभरा हंगामा मचाते है। कैसे कैसै गानों (?) पर कैसे कैसे शरीर को लटके-झटके देते है, पता नही। उनके मस्ती का आलम देखकर युवती और महिलाओं की नज़रें शर्म से झूक जाती है। महिला तो महिला किसी संवेदनशील पुरुषों के लिए भी लज्जा उत्पन्न करती है जनाब! भारत में ध्वनी प्रदूषण नियंत्रण नियमों के अनुसार आवासीय क्षेत्र में दिन के दौरान डिजे की आवाज 55 डेसिबल और रात में 45 डेसिबल से अधिक नही होनी चाहिए। अगर इससे जादा डेसिबल आवाज होती है तो वह स्वास्थ्य के दृष्टी से भी हानिकारक है। अरे भै… कोई व्यक्ती बिमार है, दिल के मरिज़ है, किसी की सर्जरी हुयी है, बुजुर्ग होते है जिनकों भारी आवाज से घबराहट होती है, परेशानी होती है। छोटे छोटे बच्चे होते है जिनके कान के पर्दे नाजूक होते है, किसी विद्यालय के विद्यार्थी/विद्यार्थीनी किसी टेस्ट एक्झॅमिनेशन की तयारी करते है, नौजवान वर्ग अपने करिअर की पढ़ाई में व्यस्त होते है। भै, इनका भी तो विचार करना चाहिए की नही? इन मस्तीखोरोंं को लगता है, पुलिस भी हमारी है, सरकार भी हमारी, हम जो चाहें कर सकते है। इस पर अर्जुन सिंह चाॅंद इस शायर ने बडी अच्छी शायरी लिख़ी है। वे लिख़ते है, *लश्कर भी तुम्हारा है, सरदार भी तुम्हारा है, तुम झूठ को सच लिख़ दो, अखबार भी तुम्हारा है। इस दौर के फ़रियादी जायें तो कहाॅं जायें, कानून तुम्हारा है, दरबार तुम्हारा है।* इस में पुलिस कसूरवार नही होती। पुलिस तो सिर्फ हुकूमत के हुकूम की ताबेदार होती है, अंमलदार होती है। उपर से जो हुकूम आता है बस उस पर ही अंमल करना होता है। अगर नही करती तो दूर दरार क्षेत्र में कहीं पर भी संबधितों की बदली होती है या फिर अपनी रोजीरोटी से हात धोना पडता है साहब… यह वास्तव है आजका। हम मानव है और मानवता के लिए हर चींज मनचाही नही कर सकते। कुछ चींजों के लिए मर्यादा होती है। और उसका पालन करना अनिवार्य होता है। हमारे देश की सभ्यता सदियों से चलती आ रही है। अगर पिछे चले जायें तो सिंधू घाटी सभ्यता से चली आयी है। उस सभ्यता में नारी को सभ्यता की मुरत माना गया। इस लिए उस सभ्यता में नारी शक्ती ही सारा कारोंबार चलाती थी। उसे ही स्त्री प्रधान संस्कृती कहाॅं गया है। यह सभ्यता दुनिया में दुनिया की सब से प्राचीन सभ्यता मानी जाती है। और दुनिया ने इसे माना और अपनाया भी है। वो ही मूल्यें आज हमारे देश के लिए मानबिंदू है। जो बुद्ध काल मे भी थे। और सम्राट अशोका (असोका) काल से लेकर वर्तमान मेँ हम तक पहुंचे है। इस से हटकर अगर कीसी ने अपने मन से मनचाहा किया, जिस से इस सभ्यता को ठेस पहुचती हो, तो दुनिया की नजरों में वो व्यक्ती आलोचना का धनी बनता है। इस लिए डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने भारत का संविधान लिख़ते समय मानवी मूल्यों को केंद्र बिंदू मानते हुवे दुनिया की सब से सुंदर संविधान की किताब लिख़ी है। उस में हर व्यक्ती को व्यक्ती स्वतंत्रता दी है। लेकिन उस स्वतंत्रता से किसी दुसरे व्यक्ती की स्वतंत्रता बाधित न हो, अपने कृती से किसी की भावना आहत न हो इसके लियें संहिताऍ भी है। जैसे की आचरण के लियें आचारसंहिता, कृती के लियें कृती संहिता, लिख़ने के लिए कलम संहिता और बोलने के लियें वाणी संहिता है। इसका पालन करना हर व्यक्ती के लियें अनिवार्य माना गया। इस लिए सारी दुनिया हमारे संविधान की मुरीद़ बन बैठी और बाबासाहब जी की कलम की भी। हमारे देश पर बाबासाहब जी के हिमालय से भी उंचे उपकार है। लेकिन हमारे देश में कुछ ऐसे भी एहसान फ़रामोश नादान लोग है जो बाबासाहब जी की, उनके तत्वों की आलोचना करते है। हमारे भारतीय कुछ लोग विदेशों में मानवी मूल्यों का उल्लघंन करते है तो वहाॅं के नागरिक हमारे भारतीयों की भारी आलोचना करते है और विरोध में आंदोलित होते है। इस से हमारे मुल्क की साख भी नीचे आती है। इस लिए हमारे भारतीय लोगों ने मानवी मूल्यों को ध्यान में रखते हुवे विज्ज्ञान की दिशा में चलना चाहिए। जो सारी दुनिया चल पडी। तभी दुनिया में हमारी साख बची रहेगी।
-अशोक सवाई
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