भारतमहाराष्ट्रमुख्यपानविचारपीठ

पेरियार रामास्वामी का भाषण

भीमराव सरवदे

पचैअप्पा महाविद्यालय मद्रास
24/11/1964
भाग 2

धार्मिक सिद्धांत और आचरण
जब हम संसार के घटनाक्रमों पर नजर डालते हैं तो हमें दिखाई देता है कि सभी धर्मशास्त्रों के सिद्धांत अत्यंत विलक्षण हैं, उनके अनुसार सभी ईश्वर दयालु हैं और सभी सजीव प्राणी ईश्वर की संतानें हैं,विश्व भर में करीब करीब 300 करोड़ लोग ये ईश्वर की संतानें हैं ऐसी ही रूढ़िवादियों की भूमिका है , अन्य सभी छोटे-बड़े सजीव प्राणी भी ईश्वर की संतानें हैं उसके भी आगे जाकर हमें यह भी देखने को मिलता है कि सभी धर्म
भूतदया का बखान करनेवाले ही हैं ये हुईं सैद्धांतिक बातें।
अब हम दैनंदिन जीवन में प्रत्यक्ष क्या घटित हो रहा है उस पर नजर डालते हैं ,जब लोग क्रोधित होते हैं तब वे एकाध व्यक्ति को चाकू घोंप देते हैं अथवा किसी का खून कर देते हैं, उसके अलावा वे अपने भोजन के लिए कितने ही बकरे,गाय, सूअर, मछलियों और पक्षियों की बलि ले लेते हैं ,इन मांसाहारी लोगों से यदि आप पूछो कि ये भी ईश्वर की संतानें हैं आप लोग इन पशु पक्षियों की हत्या क्यों करते हो? तो उनमें से कुछ लोग कहेंगे कि भूखे मनुष्य की भूख मिटाने के कारण इन पशु पक्षियों को स्वर्ग प्राप्ति होती है,इस पर आपको लग सकता है क्या कि इस प्रकार के लोग धर्म का आदर करते हैं अथवा उस पर विश्वास करते हैं ? ऐसी परिस्थिति में प्राणियों के लिए ईश्वर और धर्म की तरफ से अच्छे बर्ताव और भूतदया के समर्थन के विषय में आप क्या विचार करने वाले हैं ?
अकेले मद्रास शहर में भोजन के लिए करीब करीब दस हजार बकरे , पांच सौ गाय बैल और भारी संख्या में मछलियां मारी जाती हैं इसलिए मैं इन मांसाहारी लोगों से पूछना चाहता हूं कि इस प्रकार से प्रचंड हिंसा के लिए जिम्मेदार होते हुए भी तुम ईश्वर और धर्म पर विश्वास करने वाले हो ऐसा दावा कैसे कर सकते हो?
जिन्होंने ईश्वर, धर्म और परोपकार इन सब बातों का भरपूर प्रचार किया है उन्होंने कुछ लोगों को गुणगान करने के उद्देश्य से सामान्य जनता को फंसाकर कुछ लोगों के सुख सुविधा संपन्न जीवन जीने के उद्देश्य से यह सब प्रचार किया है इन सबमें कभी भी जनसामान्य के हित का ध्यान नहीं रखा जाता,जो वास्तव में होशियार होते हैं वे अपने शब्दों और कार्य के परिणाम का सावधानीपूर्वक विचार करते हैं क्योंकि कुछ भी बोलना तो आसान होता किन्तु उस पर अमल करना बहुत कठिन होता है।
कल मैं बंगलूर में था एक व्यक्ति मुझसे बहस करने के उद्देश्य से मेरे पास आया और पूछा कि, ईश्वर अस्तित्व में है या नहीं?
मैंने प्रतिप्रश्न किया कि आपका ईश्वर पर विश्वास है या नहीं?
उसने उत्तर दिया–हां है
उसके बाद मैंने कहा — यदि आप का ईश्वर पर विश्वास है ही तो यह प्रश्न यहां उपस्थित करने का क्या अर्थ है?
हमारा यह संवाद सुनने वाले अगल बगल के लोग मेरे प्रतिप्रश्न पर हंसने लगे।
सूर्य का अस्तित्व है क्या?
चन्द्रमा का अस्तित्व है क्या ?
ऐसा कोई पूछेगा क्या?
ईश्वर ने ही सब कुछ निर्माण किया है यदि इस मत से सबके सब लोग सहमत हो जायं तो ऐसा प्रश्न किसी के मन में पैदा होगा क्या ?
उसी प्रकार हजारों सालों से रूढ़िवादियों की तरफ से धार्मिक प्रचार किया जा रहा है फिर यह सवाल पैदा होता है कि उन्हें बार बार ईश्वर और धर्म का प्रचार क्यों करना पड़ता है?
जब लोग ईश्वर और धर्म पर विश्वास कर ही रहे हैं तो उन्हें बार बार यह सब बताने की क्या जरूरत है?
सच पूछो तो धर्म प्रचारकों के इस सतत प्रचार के कारण नकारात्मकता बढ़ रही है।
धर्म प्रचारक लोगों को कपोल-कल्पित बातें बताकर दिग्भ्रमित कर रहे हैं, लोगों द्वारा सिर्फ किसी गलत बात का प्रचार करते रहने से उस पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देने की जरूरत नहीं रहती किन्तु इन लोगों ने आज तक जो प्रचार किया है उस प्रचार के कारण उन्होंने जनसामान्य का बौद्धिक विकास ही कुंद करने का प्रयास किया है,यह भयानक है ,हम दूसरे देशों की तुलना में पिछड़े हुए हैं तो उसका कारण केवल सैकड़ों वर्षों से धर्म प्रचारकों द्वारा धार्मिक विचारों का प्रचार ही है,इस सत्य को कोई दरकिनार नहीं कर सकता।
अपने लोगों में से कुछ शिक्षित भी हो सकते हैं, कुछ विद्वान भी होंगे , कुछ डाक्टर भी हो सकते हैं कुछ लोग अलग अलग क्षेत्रों में नाम कमा चुके हुए हो सकते हैं लेकिन लोगों के व्यावहारिक अकल के बारे में विचार करने पर ,हम कहां खड़े हैं यह प्रश्न सामने खड़ा हो जाता है।
यूरोपीय जैसे विदेशी लोग एक ही ईश्वर मानते हैं वहीं हम लोग हजारों भगवानों की उपासना करते हैं और उसके लिए अकारण ही पैसों का सत्यानाश करते हैं , अपने हजारों भगवानों और देवताओं को पत्नियां और बच्चे हैं । उन्हें दिन भर में चार पांच बार नैवेद्य दिखाना पड़ता है हम इस पर विश्वास करते हैं ,हम उनके विवाह का वर्षगांठ भी मनाते हैं।
इन भगवानों ने हमारा क्या भला किया है?
विदेशी लोगों के धर्म और उनके इकलौते भगवान ने उनका क्या भला किया है? हमारे पास सादी व्यावहारिक बुद्धि होगी तभी हम इन सभी बातों पर विचार कर सकेंगे।
परंतु किसी भी बात पर विचार करने से हमें पुरावृत्त करने के उद्देश्य से इन धर्माचार्यों ने हमें बताया कि जीवन और जीवन से संबंधित जो कुछ भी घटनाक्रम सब झूठ है माया है और सत्य क्या है सिर्फ और सिर्फ ईश्वर।
अपने लोगों को उन्होंने यह भी बताया है कि मनुष्य के प्रत्येक कार्य के लिए अलग-अलग भगवान और देवी देवता हैं, इसलिए एकाध कार्य करते समय उसमें सफलता प्राप्त करने के लिए उस कार्य से संबंधित देवता की आराधना करना आवश्यक है।
उनके अनुसार शिक्षा के लिए एक अलग देवी है, तंदुरुस्ती के लिए अलग देवता है,धन दौलत के लिए अलग देवी है, भ्रष्टाचार के लिए भी अलग देवता है , अपने लोग इन देवी-देवताओं की आराधना करते हैं
फिर भी अपने लोगों में शिक्षा का स्तर क्या है? इससे यही समझ में आता है कि यह मंडली ग्रंथों को तो पूज्य मानना सिखाती है, गलती से उस पर किसी बच्चे का भी पैर लग गया तो उस पर माथा टेकना सिखाती है, प्रत्येक घर में शिक्षा की देवी सरस्वती का फोटो लगा हुआ दिखाई देता है धन की देवी मानी जाने वाली लक्ष्मी का फोटो दुकानों में लगा हुआ दिखाई देता है,वर्ष में दो तीन बार सरस्वती का उत्सव भी मनाया जाता है इस तरह हम धार्मिक कर्मकांडो में उलझे हुए हैं फिर भी हमें उनसे क्या प्राप्त हुआ? श्री कामराज के मुख्यमंत्री होने तक अपने लोगों में से केवल 10% लोग ही शिक्षित हो पाये थे,तब से सत्ता में सिर्फ ब्राह्मणों का ही हित साध्य किया वे हमेशा इसी बात के लिए प्रयत्नशील रहे कि केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा प्राप्त हो ऐसी बातों का प्रचार करके वंचित वर्ग के बच्चों को शिक्षा से दूर रखने का उन्होंने भरपूर प्रयत्न किया इस कुटिल प्रयास में उन्होंने बहुत सारे स्कूलों को बंद करने की भी चाल चली , इसके पीछे ब्राह्मणों का उद्देश्य यह था कि ब्राह्मणेत्तर वर्ग की शिक्षा में अनुपात बढ़ने न पाये।
शिक्षा की देवी ने क्या किया?प्रत्येक घर में सरस्वती की फोटो लगी हुई दिखाई देती है, परीक्षा में बैठने वाला विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी के पढ़ाई करने से ज्यादा समय सरस्वती की पूजा करने में बर्बाद करता है और परिणाम क्या होता है वह भी स्पष्ट है ।
जिस कागज का हमारे लोग देवी समझकर पूजा करते हैं पश्चिमी देशों के लोग उसका इस्तेमाल शौचालय के लिए करते हैं शिक्षा की देवी तो पश्चिमी देशों के लोगों की ही मदद करती है परन्तु भारत में सिर्फ दस प्रतिशत धार्मिक लोगों की ही शिक्षा में मदद करती है उस 10% में भी अधिकतर अमीर एवं सवर्ण ही होते हैं , फिर हम कैसे कह सकते हैं कि ईश्वर देवी देवता हमारी मदद करते हैं, ऐसी परिस्थिति में लोग धर्म पर श्रद्धा क्यों रखें , अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी धार्मिक भावना और श्रद्धा लोगों को मूर्ख बनाये रखने के लिए ही है उनका बौद्धिक विकास कतई नहीं कर सकती।
हम इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि धर्म यह “मूर्खता” का समानार्थी शब्द है , यदि हम धार्मिक ग्रंथों का बारीकी से निरीक्षण करें तो पायेंगे कि उनमें सर्वत्र असत्य और अस्वाभाविक विधानों की ही भरमार है,इन ग्रंथों के निर्माताओं का उद्देश्य लोगों को मूर्ख बनाना ही था यह स्पष्ट दिखाई देता है।
वे हमें कहते हैं धर्म ग्रंथों के सभी विधान बिना विरोध किये हुए जैसे का तैसा स्वीकार करना ही चाहिए , वे हमें यह भी निर्देश देते हैं कि उनमें से एक भी विधान की सत्यता पर शंका करके उनकी जांच पड़ताल किया तो नर्क में जाना पड़ेगा। धार्मिक विधानों के विरुद्ध जाने वाले लोगों को सजा देने की सलाह राजाओं को दी गई है, लोगों को भी यह सलाह दी गई है कि जो राजा धार्मिक विधि विधानों का पालन नहीं करता उससे मुक्त हो जायें,आज तक आस्था विश्वास के साथ धर्म का पालन करने वाले लोगों की आज की स्थिति क्या है? क्या केवल अंधविश्वास के कारण ही लोगों को अभी तक जीने का अवसर मिला है? देखा जाए तो यूरोप में मनुष्य की औसत आयु 73 से 74 साल है किन्तु अपने देश में मनुष्य की औसत आयु 47 से 48 साल ही है।
धर्म के कारण मनुष्य की बौद्धिक हानि
धर्म के कारण मनुष्य की विचार करने की प्राकृतिक शक्ति का बंध्याकरण होकर उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है
धर्म के कारण साधारण आदमी पिछड़ा ही रहता है और जनता के शोषक वर्ग को सतत उसका फायदा होते रहता है।
जब जब हमारे जैसे लोगों ने जनता के सामने सत्य परिस्थिति रखने का प्रयास किया तब तब समाज ने थोड़ा बहुत प्रगति किया ऐसा देखने को मिलता है।
आज भी किसी एकाध आदमी से पूछो कि तुमने पढ़ाई क्यों नहीं की तो वह कहेगा कि शिक्षा मेरे भाग्य में नहीं थी।
जो लोग सत्ता में थे उन्होंने इस विषय पर कभी भी विचार ही नहीं किया,जभी कामराज सत्ता में आये तो उन्होंने इन उपेक्षित लोगों को शिक्षित करने और उनका भविष्य उज्वल करने का आश्वासन दिया था ,जब दिल्ली में नेहरू सत्ता में आये तो उन्होंने नसीब ,भाग्य पर रखे जाने वाले विश्वास की अवहेलना किया और कारखाने खोलकर काम कर सकने वाले लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया।
इसपर ऐसा कह सकते हैं कि जब जब समाज के मार्गदर्शकों ने भाग्य ,तकदीर, धर्म और ईश्वर देवी देवता पर अंधविश्वास लोगों के दिमाग से निकाल फेंकने का प्रयास किया तब तब सही मायने में समाज प्रगति पथ पर आगे बढ़ा।
जिन लोगों ने समाज को धर्म व रूढ़ियों पर विश्वास करने को प्रवृत्त किया वास्तव में वही लोगों की प्रगति में बाधक हैं, समाज द्रोही शक्तियां सतत अपने ओजस्वी भाषण से लोगों को फंसाती रहती हैं , सच पूछो तो सुननेवाले मूर्ख होते हैं इसीलिए शोषण निरंतर जारी रहता है।
एक दिन एक धार्मिक कार्यक्रम में प्रवचनकार बोला कि यदि किसी नास्तिक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि हम ईश्वर को क्यों नहीं देख सकते? तो मैं उस नास्तिक व्यक्ति से पूछूंगा कि तुम अपनी पीठ देख सकते हो क्या ?
इन शब्दों से सुननेवालों को समाधान जैसा महसूस होता है।
जब यह बात एक व्यक्ति ने मुझे बताई तो मैंने उसे फिर उसी कार्यक्रम में जाने को कहा और सलाह दिया कि जाकर उस प्रवचनकार को चुनौती देते हुए उसके पीठ पर एक जोरदार घूंसा मार और उससे पूछ कि तेरी पीठ कहां है अब पता चला कि नहीं?
दूसरे एक कार्यक्रम में एक वरिष्ठ व्यक्ति ने कीर्तनकार से पूछा कि मंदिर में रखे हुए पत्थर को ईश्वर क्यों कहते हैं?
उस कीर्तनकार ने उत्तर दिया कि
सौ रुपए की नोट विशिष्ट प्रकार से छापी जाती है किन्तु जब उसपर सरकार की मुहर लगती है तभी उसकी सौ रुपए की कीमत प्राप्त होती है।
ठीक उसी प्रकार जब एकाध मूर्तिकार एक पत्थर की गढ़ाई करके विशिष्ट आकार देता है तब उस पत्थर का रूपांतरण ईश्वर की प्रतिमा में होता है ,धर्मांध लोगों की तरफ से इसी तरह के अर्थहीन शब्द बार बार कहे जाते हैं जिसके कारण साधारण व्यक्ति अपने बारे में विचार करने से परावृत्त होता है।
पत्थर अथवा ईश्वर
कोयम्बटूर में एक सभा में। भाषण करते हुए मैंने लोगों को यह सलाह दिया कि मंदिरों में रखी पत्थरों की मूर्तियों की पूजा करने में अपना अमूल्य समय नष्ट न करें। उसके बाद एक मित्र (युवावस्था में हम लोग कांग्रेस में एक साथ काम करते थे तब वह मुझे सहयोग करता था) खड़ा होकर चिल्लाने लगा कि ओ नायकर! तेरा दिमाग इतना कैसे बहक रहा है? हमारे भगवान को तू पत्थर कैसे कह रहा है? और फिर बोला मेरे साथ मंदिर में चल और देख वहां पत्थर है कि भगवान? उस प्रसंग पर श्रोता खूब हंसे। मेरा भाषण सुनने के लिए वहां एक पत्रकार भी उपस्थित था इसलिए मेरे मित्र को असहजता महसूस हुई झेप मिटाने के लिए उसने कहा कि मूर्त्ति भले ही पत्थर से तैयार की जाती है लेकिन वह मंत्रोच्चार द्वारा पवित्र की जाती है। मैंने कहा यदि तुम्हारे मंत्र पत्थर को ईश्वरत्व प्रदान कर सकते हैं तो यहां उपस्थित एकाध व्यक्ति पर मंत्रोच्चार करके मंदिर में जाकर उस ईश्वर को स्पर्श करने की अनुमति क्यों नहीं देते? उसके बाद वह बड़बड़ाया कि यह सब फालतू चर्चा है और वहां से निकल गया, इसी प्रकार ये लोग साधारण लोगों को फंसाते हैं। जाति व्यवस्था की क्या जरूरत? चार पांच महीने पहले जब एक व्यक्ति लोगों के सामने भाषण देते हुए बोल रहा था कि आजकल कुछ लोग अब जाति पांति नहीं , ऐसा कहने लगे हैं ये क्या दुष्टता है? कुत्ते का ही उदाहरण लीजिए एक देशी कुत्ता, दूसरा बुलडाग, तीसरा एलसीशिसियन और राजापलायम आदि कुत्तों में इतनी जातियां हैं तो मनुष्यों में जाति होना कौन सी आश्चर्य की बात है? उस व्यक्ति को अपने अलंकारिक भाषण से संतुष्टि भले मिली हो लेकिन उसके भाषण का कोई अर्थ नहीं क्योंकि अलग-अलग जाति के कुत्तों को पहचान सकते हैं ऐसे उनमें लक्षण होते हैं यदि हमने अनेक प्रकार के कुत्तों को एक जगह जमा किया तो कोई भी उन्हें आसानी से अलग अलग कर सकता है किन्तु यदि हमने कई जाति के लोगों को एक जगह एकत्रित किया और किसी अपरिचित व्यक्ति से सबको जाति के अनुसार अलग-अलग करने को कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को जाति के अनुसार अलग-अलग करो तो वह कर पायेगा क्या ? परन्तु श्रोताओं में से किसी एक व्यक्ति ने भी उसका विरोध नहीं किया ,किसी ने भी नहीं कहा कि तुम्हारा भाषण बेमतलब है इसका कारण अपने लोगों के पास तर्कबुद्धि ही नहीं है यदि है भी तो उसका उपयोग करने की इच्छा ही नहीं होती। यह धर्मांध मंडली जनसामान्य को उध्वस्त करने के लिए निकली है यही कहना पड़ेगा। धर्म किसलिए चाहिए हमें धर्म किसलिए चाहिए? प्रचीन मानव के विचार हैं ऐसा माने जाने वाले धर्म ग्रंथों पर हम बिना शर्त बिना शिकायत श्रद्धा क्यों रखते हैं? हम प्राचीन मानव की अपेक्षा कुछ अलग नहीं हैंक्या? दूसरे देशों के लोग आज कैसा बर्ताव करते हैं ? क्या वे आज भी उनके पूर्वजों ने जैसा कहा वैसा ही व्यवहार करते हैं?
वे स्वतंत्रता पूर्वक विचार करते हैं जिससे उनकी प्रगति हो रही है यह हमें दिखाई नहीं देती क्या ? हमें भी हमारे पूर्वजों ने क्या कहा उस पर ध्यान न देकर उसपर अंधविश्वास न रखकर इस पर विचार करने की शुरुआत करनी चाहिए।
पूर्वज और चकमक पत्थर (रगड़कर आग जलाने वाला पत्थर)
प्राचीन काल में जब संत महात्मा रहते थे वे धर्म की स्थापना करके यही कहते थे कि ईश्वर ही सृष्टि का निर्माता है।
अग्नि और प्रकाश यह चकमक पत्थर से उत्पन्न किया जाता है ,तेल से दिया जलाने का शोध यह बाद में किया गया बहुत बड़ा आविष्कार है ,आज तो तुम एक बटन दबाते हो और अनेक बल्ब एक साथ जल उठते हैं ,यह कैसे हुआ?क्या किसी धर्म अथवा ईश्वर ने मनुष्य को बिजली का आविष्कार करने को कहा? शास्त्रीय ज्ञान यह मनुष्य के बौद्धिक क्षमता से विकसित हुआ है धर्म ग्रंथों से नहीं, धर्म केवल विचारशक्ति और विकास में बाधक के रूप में ही खड़ा रहता है और कहीं भी उपयोगी नहीं है इसीलिए पश्चिम में धर्म को अफीम की गोली कहा है।
धर्म का वास्तव में अर्थ क्या है? ‘मधम’ यह तमिली शब्द हम धर्म के लिए इस्तेमाल करते हैं सच पूछो तो तमिली शब्द भी नहीं है क्योंकि प्राचीन काल में तमिलनाडु में धर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं था इसलिए धर्म के लिए कोई खास शब्द बनाने की कोई जरूरत ही नहीं थी।
धार्मिक संकल्पना और ‘मधम’ व ‘समायाम’ ये धर्म के तमिली समानार्थी शब्द कुछ उत्पाती लोगों ने लाया ,तमिल भाषा में आपको एक भी पुस्तक नहीं मिलेगी जिसमें लिखा हो कि तत्वनिष्ठ जीवन जीना चाहिए , केवल ‘थिरुवूराल’ नाम की पुस्तक में शिक्षक चरित्रवान और सदाचारी बनें ऐसा उल्लेख किया गया है इस पुस्तक का कुछ भाग आज भी उपयोगी साबित हो रहा है।
हिन्दुत्ववाद यह केवल काल्पनिक है
अत्यंत झूठा प्रचार किया जा रहा है कि हिन्दुत्ववाद ही धर्म है, किसी भी बुद्धिजीवी व्यक्ति ने ऐसा कोई धर्म है इस पर विश्वास नहीं किया है इतना ही नहीं शंकराचार्य ने भी हिन्दुत्व यह धर्म है ऐसा अभी तक मान्य नहीं किया है, अपने पास तमिल साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है परन्तु उनमें कहीं भी यह शब्द दिखाई नहीं पड़ता अथवा उस तथाकथित धर्म के इतिहास और उद्गम के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं है यदि कोई धर्म प्रचारक इस वस्तु स्थिति के बारे जानता हो तो सार्वजनिक रूप से लोगों को बताए अन्यथा धार्मिक आचरण के बारे में बोलकर जनसामान्य को स्वतंत्र रूप से विचार करने और अपने बौद्धिक विकास करने से भटकाने का प्रयास न करे।
मुस्लिम आपको बता सकते हैं कि उनका धर्म छठी शताब्दी में अस्तित्व में आया जिसके संस्थापक मोहम्मद नबी और कुरान उनका पवित्र ग्रंथ है ,क्रिश्चियन ऐसा कह सकते हैं कि उनके धर्म के संस्थापक ईसा मसीह और उनका पवित्र ग्रंथ बाइबल है, खुद को हिंदू मानने वाला कोई भी उसके धर्म के बारे में ऐसी कोई जानकारी दे सकता है क्या ? धर्म प्रचारक ऐसा कहेंगे कि वह एक वैदिक धर्म है किन्तु वे आपको वैदिक ग्रंथ नहीं दिखा सकेंगे और उसमें क्या लिखा है यह बता भी नहीं पायेंगे।
इस धर्म ने हमारे लोगों को हजारों समूहों और जातियों में बांट दिया है और प्रत्येक व्यक्ति को अपने मूल विचारों से परावृत्त किया है ।
दूसरे धर्म उनके अनुयायियों से एक दूसरे के साथ भाईचारे के साथ आपस में प्रेम पूर्वक रहने की शिक्षा देते हैं, और यह धर्म एक दूसरे से द्वेष करना सिखाता है ऐसी परिस्थिति में इसे धर्म के नाम से संबोधित करने का क्या कारण है जिसके कारण लोगों का शोषण हो रहा हो।
ऐसा लगता है इस धर्म की रचना बहुत प्राचीन काल की है जब लोग वास्तव में जंगली और मूर्खों की तरह जीवन जी रहे थे इसलिए उस काल के धर्म के अनुसार आज व्यवहार करने के लिए कहने का कोई मतलब नहीं, यदि लोगों को धर्म चाहिए ही वह समाज और आज की परिस्थितियों के अनुरूप ही होना चाहिए। यदि लोगों को ऐसा लगता है कि धर्म की कोई जरूरत नहीं तो किसी भी धर्म से संबंध न रखते हुए उन्हें अपने बुद्धि विवेक से जो योग्य लगे और जैसा वातावरण हो वैसा जीवन जीने दो।
यदि किसी मुस्लिम परिवार का एकाध बच्चा हिन्दू परिवार में पला बढ़ा तो वह बाद में खुद को हिंदू ही कहेगा, यदि किसी हिन्दू का बच्चा मुस्लिम परिवार में पला बढ़ा तो मैं मुस्लिम हूं वह यही कहेगा । एकाध ब्राह्मण का बच्चा मांसाहारी परिवार में पला बढ़ा तो वह वह भी मांस भक्षण करेगा कुल मिलाकर धर्म मतलब हम जैसा व्यवहार करते हैं उसी को *धर्म कहते हैं और ईश्वर पर विश्वास करना उसके पालन कर्ता के वातावरण पर निर्भर करता है, एक बोलता है उसका ईश्वर नटराज है , दूसरा कहता है उसका ईश्वर कृष्ण है वहीं कुछ लोग कहते हैं अल्ल्लाह उनका ईश्वर है इसीलिए जिनका जो है उन्हें विचार करना है कि धर्म और ईश्वर इस कल्पना का उद्गम कैसे हुआ ?लोगों के विविध समुदायों से उसका संबंध कैसे बना ? उनके बीच इस कल्पना का प्रचार कैसे किया गया ? और उस विषय को मानने के लिए लोगों को मानसिक रूप से कैसे तैयार किया गया ? इन सब बातों पर विचार होना आवश्यक है क्योंकि इसी मार्ग से प्रत्येक का व्यक्तित्व और उनकी चिंतन क्षमता का विकास हो सकता है।

पेरियार रामास्वामी यांची गाजलेली भाषणे (मराठी)
लेखक — भीमराव सरवदे
से साभार
अनुवादक– चन्द्र भान पाल

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