जिसने दुसरे पर बिश्वास किया उसका अपेक्षित कार्यभाग डुब गया। __ डॉ. बाबासाहब आंबेडकर (19 जून 1938)
बी. बी. मेश्राम
मित्र हो,
बुद्ध, फुले, शाहू, आंबेडकराईट आंदोलन के इतिहास कि और पीछे मुड़कर देखे तो डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने 19 जून 1938 को चालीसगांव की सभा में कहा था की, “जिसने दुसरेपर बिश्वास किया उसका अपेक्षित कार्यभाग डुब गया।” वह आज भी कितना प्रासंगिक है? यह ध्यान में रखते हुए मार्गक्रमण करणे कि नितांत आवश्यकता है। इसलिए यह चार शब्द आपके जानकारी के लिए लेख स्वरूप में।
यह खंत स्वातंत्र्य पूर्व काल में व्यक्त की ती जब ब्रिटिशों का राज हमारे देशपर था। ऐसा लगता है लेकिन डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने तत्कालीन स्थिती का अवलोकन करते हुए कहाँ था की, “हमारे उपर जो सरकार राज कर रही है वो ब्रिटिश सरकार नहीं तो काँग्रेस सरकार है।” उस समय डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी को ब्रिटिश सरकार के साथ 11 साल और काँग्रेस के साथ 11 महिनों का अनुभव था। उस अनुभव के बलपर काँग्रेस कि और से अपेक्षाये विफल होने की बात बाबासाहब आंबेडकर जी ने व्यक्त की है। क्योंकि ब्रिटिश सरकार कि और से थोडा सहयोग मिल ही जाता था लेकिन काँग्रेस की और से तो बिल्कुल नहीं मिल पाता था। इसलिए उद्वेगजनक भावना से उन्हें ऐसा व्यक्त होना पडा था। उस समय काँग्रेस के सुत्रधार गांधीं थे। परिणामतः ‘राजा बोले – दल चले’ इस उक्ती के मुताबिक गांधी जैसे बोलते थे वैसे काँग्रेस वाले करते थे। लेकिन गांधीं को अछूतों के बारें में बिल्कुल आस्था नहीं होने से अछूतों को बहुत कुछ मिलने कि संभावना नहीं थी। इसलिए काँग्रेस और गांधींपर बिश्वास रखने से कुछ हासिल होने कि आशा नहीं थी। यह पता चलने से “जिसने दुसरेपर बिश्वास रखने से उसका अपेक्षित कार्य भाग डुब गया।” ऐसा कहना पड़ा। इसलिए हमें अपने तय कार्य को अंजाम देना ही होगा। तब बाबासाहब आंबेडकर जी ने कहाँ था की, “काँग्रेस को और किसी का डर लगता हो, तो वो स्वतंत्र मजूर पक्ष है।” जब की स्वतंत्र मजूर पक्ष के सिर्फ़ 15 प्रतिनिधी असेंब्ली में थे।, जिससे काँग्रेसीयों को राज करने में दिक्कत आती थी। इसलिए मूलनिवासी बहुजन समाज के पक्ष संघटनाओं को नेस्तनाभूत करणे का काम काँग्रेस कि और से निरंतरता से किया जा रहा था। परिणामतः एक बार डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी को “काँग्रेस यह जलता मकान है।” ऐसा भी कहना पड़ा था। फिर भी मूलनिवासी बहुजन समाज के नेता लोग काँग्रेस कि ड़ोर से बंधे जाने के लिए क्यों तरसते है? ऐसे सभी अनाकलनीय सवालों के जवाब ढुंढकर हमें अपने स्वतंत्र अस्तित्व निर्माण के लिए प्रयास करना चाहिए। अन्यथा यह लोग हमारी जनता का सिर्फ़ प्रयोग करते रहेंगे। यह सब बाबासाहब आंबेडकर जी के जमाने से आजतक देखने मिल रहा है। सद्यस्थिती में हुए लोकसभा चुनाव के परिणाम का अवलोकन करने पर मूलनिवासी बहुजन समाज के राजकीय पार्टीयाँ शून्य की और मार्गक्रमण करते हुए दिख रहे है। इसतरह उनका अस्तित्व खत्म होने कि कगार पर है क्या? ऐसा महसूस हो रहा है। यह सिर्फ़ मूलनिवासी बहुजन समाज के राजकीय अस्तित्व की अध:पतन नहीं है तो सामाजिक अस्तित्व का भी अध:पतन है। ऐसी विदारक स्थिती निर्माण हो चुकी है। जिससे मूलनिवासी बहुजन समाज नैराश्यता से हवालदिल हो चुका है। परिणामतः मूलनिवासी बहुजन समाज के नेतृत्व में बहुत बड़े पैमाने पर खामी पायी जा रही है। उन रिक्त स्थानीय मर्म को जो भर पायेगा उन्हें जनता समर्थन देगी। इस से सबक लेकर हमें मार्गक्रमण करना चाहिए।
इस तरह से सोचते हुए डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने 17 जून 1938 को स्वतंत्र मजूर पक्ष के असेंब्ली में चुनकर आये 15 प्रतिनिधींयों के कार्यकर्तृत्व पर बोलते हुए कहाँ था की, “हमारी राजनीतिक सफलता को ब्रह्मदेव भी आया तो भी नहीं रोख सकता।” यह मर्मभेदी आव्हान बाबासाहब के हितैषी कैसे क्या भूल गये? यह सवाल अनुत्तरित है। जैसे उस समय बाबासाहब आंबेडकर जी को स्वतंत्र मजदूर पक्ष को बलवान बनाना चाहिए ऐसा लगता था। वैसा उनके हितैषी अनुयायीयों को अपनी अपनी पार्टीयों को बलवान बनाना चाहिए ऐसा आज क्यों नहीं लगता है? उस समय वल्लभभाई पटेल जी ने डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी के शिस्तप्रिय वर्तन का वर्णन करते हुए कहाँ था की, ‘संगठना हो तो डॉ. आंबेडकर के संगठन जैसी हो!’ ऐसे संगठन निर्माण करने में हमारे लोग कहाँ कम पडत रहे है? इसका सभी हितैषीयों ने जवाब ढुंढने कि नितांत आवश्यकता है। वर्तमान समय में समाज जीवन में ला़ख संगठनाओं का जाल दिख रहा है लेकिन “संगठन” कही पर भी नहीं दिख रहा है। ऐसी संगठन विरहीत संगठनाये समाज को फसा रहे है। उन्हें सही रास्ते कि और ले जाने के लिए समाज सुशिक्षित तथा अच्छे पढ़े लिखे व्यक्तीयों ने अपनी सही भूमिका अदा करनी चाहिए। अन्यथा समाज में उपलब्ध शिक्षित, उच्च शिक्षित और अती उच्च शिक्षित लोग उनके स्वार्थ के लिए समाज का सिर्फ़ दुरुपयोग करते रहेंगे। यह ध्यान में रखते हुए मार्गक्रमण करते रहने की आवश्यकता है। इस आस्था के बल पर डॉ बाबासाहब आंबेडकर जी ने कहाँ था की, “कुछ जिम्मेदार युवा जरूर निर्माण होंगे और यह जिम्मेदारी वो अपने सरपर उठायेंगे।” तो वह जिम्मेदार युवा आखिर गये कहाँ? उन्हें ढुंढने के लिए अभी मायक्रोस्कोप की जरुर महसूस हो रही है। यह हमारे समाज की बहुत बड़ी खामी नहीं है क्या? हमारी ऐसी दुरावस्था क्यों हो चुकी है? इस पर भी विचार होना चाहिए। तब यह हे ध्यान में आता है की, जिस समाज को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने शिक्षित करो, आंदोलित करो और संगठीत करो ऐसा संदेश दिया था। लेकिन वो समाज संगठीत होणे से कतराता क्यों? हितैषीयों ने अपने आपको प्रश्नांकित करना चाहिए की, वो आखिर कहाँ और कैसे संगठीत है? अगर वो कहीं भी संगठीत नहीं है, तो फिर वो औरों को संगठीत कैसे कर सकते है? हम जहाँ पर भी संगठीत हो वहाँपर हम आखिर क्या करते है? उस संगठन के उद्दिष्ट पूर्ती के लिए तिथे क्या प्रयास किये जा रहे है, और उस में हमारी हिस्सेदारी कितनी है? आप कार्यरत होने वाली संगठन में पिछले पाच साल की सदस्यता संख्या कितनी है? आप कार्यरत होने वाले संगठन में मुखपत्र प्रकाशित करते है क्या? अगर हाँ, तो समाज जीवन में उसका वितरण और प्रभाव क्या है? अगर ऐसा नहीं है, तो फिर हम किसके बलपर हमारे निर्धारित उद्दिष्ट को साकार करना चाहते है? आदी सवाल हमें अपने आपको पुछते हुये जवाब तलाश ने चाहिए। इसलिए तत्कालीन स्थिती में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने यह भी स्पष्ट किया था की, “हमारे स्वयं के दुष्कृत्यों से हमारी जानवरों के जैसी भी किंमत नहीं रही।” जब हमारे लोग मृत जानवरों के मास खाते थे। यह मास उन्होंने नही खाया होता तो, निश्चित ही उसे और जानवरों ने खाया होता। इसलिए तब उन्होंने स्पष्टीकरण दिया था। लेकिन आज भी समाज के कुछ लोग व्यक्तीगत स्तरपर प्रगतीपथपर दिख रहे है लेकिन सामाजिक दृष्टी से समाज के बहुतांश लोग आज भी विकास से कोसो दूर है। इस को हमारी ही कृतीशीलता जिम्मेदार होने का हमें स्विकार करना चाहिए। यह ध्यान में रखते हुए समाज में उपलब्ध डाॅक्टर, वकील, इंजिनिअर और उच्च पदस्थ अधिकारीयोंने उर्वरित वंचित मूलनिवासी बहुजन समाज को जीवन के मुख्य प्रवाह में साने के लिए अपनी भूमिका जिम्मेदारी से अदा करनी चाहिए।
संदर्भीय दोन्हों भाषण का वृतांत समझते हुए और लोगो को समझा ने का हम सभी ने मिल कर भरकस प्रयास करना चाहिए, ताकि नये सिरे से छलाँग लगा सकते है। लेकिन तब हमारी राजनीतिक प्रगती को ब्रह्मदेव भी नहीं रोख सकता। यह साकार करणे के लिए बिश्वास पात्र हितैषीयों की वैचारिकता को मजबूत करना होगा। ताकि वो वैचारिक समझोता नहीं कर पायेंग। परिणामवश भारत का संविधान को अपेक्षित समता, ममता, स्वतंत्रता और न्यायपर आधारित वैज्ञानिक दृष्टिकोन वाला नव समाज निर्माण होऊ सकेगा। इसलिए हमें आंबेडकरवाद कि और चलते हुए आंबेडकरवाद की छत्रछाया के नीचे संगठित होना होगा ताकि आंबेडकरवाद को अपेक्षित उद्दिष्ट साकार किया जायेगा।
लेखक : बी. बी. मेश्राम, अभ्यासक, संचालक : फुले, शाहू, आंबेडकराईट स्टडी सर्कल, छत्रपती संभाजी नगर, महाराष्ट्र.
संपर्क : 9421678628
stdbbm@gmail.com
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दैनिक जागृत भारत