महाराष्ट्रमुख्यपानविचारपीठ

क्या बौद्ध धर्म में मूर्ति पूजा है?

रामानन्द दास मौर्य

एक बार कौशल नरेश प्रसेनजीत ने भगवान से आग्रह किया कि अपनी मूर्ति बनाने की अनुमति प्रदान करें। भगवान ने कहा सम्यक सम्बुद्ध की मूर्ति तो बन ही नहीं सकती। बुद्धत्व का कोई आकार नहीं होता यह तो एक भावनात्मक स्थिति है। यदि मूर्ति बनेगी भी तो बुद्ध की न होकर मुझ भिक्षु गौतम के शरीर की होगी। भगवान ने अपने शारीरिक आकृति के आधार पर मूर्ति बनवाने से इंकार कर दिया।

प्रसेनजीत ने कहा कि इस से पहले के 26 बुद्धों की तो मूर्तियां बनती रही हैं, इसलिए अनुमति प्रदान करें। बहुत आग्रह करने पर केवल इस आधार पर एक मूर्ति बनाने की आज्ञा दी कि उसकी पूजा न की जाय। इस मूर्ति को केवल उतना ही गौरव दें जितना कि लोग अपने माता पिता या गुरु के चित्र को देते हैं। पूजा आरती करने से पूर्ण निषेध कर दिया।

परसेनजीत ने लकड़ी की मूर्ति बनवा कर जेतवन बिहार में रखवा दिया था। जिसे बुद्ध के निर्वाण के आठ सौ साल बाद आए चीनी यात्री फाह्यान ने इसका उल्लेख करते हुए कहा कि मूर्ति जीर्ण शीर्ण हो गयी है जिसकी लोग पूजा नहीं करते हैं बल्कि पुष्प अर्पित कर प्रणाम करते हैं।

इस प्रकार बुद्ध द्वारा मूर्ति निर्माण के निषेध के कारण बुद्ध के महापरिनिर्वाण के चार सौ साल तक बुद्ध के शारीरिक आकृति के आधार पर मूर्ति का निर्माण रुका रहा। तीसरी शताब्दी ईसवी पूर्व में निर्मित सांची के स्तूप के तोरण पर तथा भरहुत के स्तूप के वेष्टनियों एवं तोरण पर बुद्ध के जीवन का अंकन उकेरी हुई आकृतियों के माध्यम से हुआ है।

इसमें अन्य व्यक्तियों की आकृतियों का अंकन तो हुआ है परंतु बुद्ध की आकृति के स्थान पर संकेतों का प्रयोग किया गया है। जैसे बुद्ध के जन्म के दृश्य में माता महामाया तथा दासियों को तो चित्रित किया गया है परन्तु सिद्धार्थ के स्थान पर प्रतीक स्वरूप हाथी का अंकन किया गया है।

महाभिनिष्क्रमण के दृश्य में सिद्धार्थ के स्थान पर नदी को पार करते हुए केवल अश्व को चित्रित किया गया है। बोधि प्राप्ति के दृश्य में बुद्ध की आकृति के स्थान पर पीपल के वृक्ष का अंकन किया गया है। धम्म चक्क पवत्तन के दृश्य में बुद्ध के स्थान पर केवल धम्म चक्क का अंकन है। इसी प्रकार महापरिनिर्वाण के दृश्य में बुद्ध के आकृति के स्थान पर स्तूप का अंकन किया गया है।

इस प्रकार पहली शताब्दी ईसवी पूर्व तक बुद्ध के शारीरिक आकृति के आधार पर मूर्ति का निर्माण नहीं हुआ बल्कि सांकेतिक प्रतीकात्मक अंकन हुआ है। दूसरी शताब्दी ईसवी पूर्व में पश्चिमोत्तर भारत में यूनानियों का शासन स्थापित हो गया। आकृतिपरक मूर्ति निर्माण के बुद्ध के निषेध की अवहेलना करके यूनानियों ने पहली बार बुद्ध की आकृति के यथार्थपरक मूर्ति का निर्माण किया जिसमें बुद्ध की आकृति का तक्षण यूनानी देवता अपोलो के अनुकृति के आधार पर किया

परंतु यूनानी देवताओं की तरह बुद्ध के मूर्ति की पूजा नहीं की जाती थी। लौकिक राजाओं, दार्शनिकों और ऐतिहासिक महापुरुषों के मूर्ति निर्माण की तरह स्मृति एवं गौरव के लिए बुद्ध के मूर्ति का निर्माण किया जाने लगा। यूनानियों द्वारा मूर्ति निर्माण की कला ही गांधार कला कहलाई।

यूनानियों का अनुकरण करके भारतीयों ने भी बुद्ध की मूर्ति का निर्माण प्रारम्भ कर दिया जिसमें बुद्ध की मुखाकृति को शुद्ध उत्तर भारतीय नाक नक्शे के आधार पर निर्मित किया गया जैसे सारनाथ की मूर्ति है। इसे मथुरा कला कहा गया है। इसप्रकार बुद्ध की मूर्ति का निर्माण प्रचुर मात्रा में होने लगा।

परन्तु तब से आज तक कहीं भी बुद्ध की मूर्ति की पूजा नहीं की जाती है। हिन्दू मूर्तियों की तरह न तो बुद्ध के मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा की जाती है न तो भोग लगाया जाता है, न ही शयन कराया जाता है, न श्रृंगार किया जाता है। अन्य महापुरुषों की मूर्तियों की तरह जैसे गांधी, पटेल, सुभाष, भगतसिंह, आम्बेडकर आदि की मूर्तियां स्मृति और गौरव के लिए स्थापित की जाती हैं तथा फूल माला अर्पित करके मोमबत्ती धूपबत्ती जलायी जाती है।

इसी प्रकार का व्यवहार बुद्ध की मूर्ति के साथ होता है। अन्तर केवल इतना है कि बुद्ध की मूर्ति को माला पहनाने का निषेध है। इस प्रकार हिंदू भगवानों के मूर्ति पूजा की तरह बौद्ध धर्म में मूर्ति पूजा नहीं है।

~रामानन्द दास मौर्य

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