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नेपाल में तख्तापलटअशोक सवाई

(आंतरराष्ट्रीय स्तर पर उद्रेक)

आंतरराष्ट्रीय पटल पर इतिहास में आज तक दुनिया के मुल्कों में बहोत सारी क्रांती-प्रतिक्रांतीयाॅं हुयी है। आगे भी हो सकती है। उस में हिंसाऍ हुयी। उस में हिंसा का प्रमाण भले ही कम-जादा रहा होगा, लेकिन हिंसाऍ हुयी है। इसे नकारा नही जा सकता। मगर इन क्रांतीयों में से एक क्रांती ऐसी रही है की, उस में बिलकुल भी हिंसा नही हुयी थी। इंसानी खून बहा नही था। वह एक ऐतिहासिक क्रांती रही है। देश विदेशों में वो ही क्रांती अपने आप में एक मिसाल बनी है। आंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब दुनिया के देशों में क्रांती का इतिहास पढ़ा जाता है, या पढ़ाया जाता है तब उस क्रांती को अग्रगण्य स्थान दिया जाता है। वह क्रांती है, हमें सन १४ अक्टूबर १९५६ में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी के द्वारा दी गयी बौद्ध धम्म दीक्षा क्रांती। इस क्रांती की दुनिया में कोई मिसाल नही। खैर!

दुनिया के किसी भी मुल्कों में आम तौर पर दो वर्ग के लोग होते है। पहला शोषक वर्ग जो सत्ताधिशों का होता है। और दुसरा शोषित वर्ग। जो आम जनता के रूप में है। इन दो वर्गों में शुरू से ही आपस में विचारों का टकराव रहा है। आज भी जारी है। शोषक वर्ग हमेशा के लिए सत्ता में बने रहने के लिए कोशिशों में लगा रहता है। फिर चाहे उस के लिए आम जनता पर बेहद, बेतहशा जुल्म भी क्यों न ढ़हाने पडे। सत्ता के नशे में उस जुल्मों को बेदखल किया जाता है। लेकिन जनता चाहती है की, जनता के हर वर्ग के प्रतिनिधीयों को सत्ता में भागीदारी मिलें। स्थान मिले। जिस से मुल्क सुचारू रूप से चले। लेकिन सत्ता की मस्ती में चूर रहनेवाले और खुद्द को आजीवन सल्तनत के सुलतान, दरबारी तख्त के शहेनशाह, सत्ता के मालिक मुख्तार समझनेवाले चाहते है की, जनता हमारें रहमों कदमों पर चले। (उदा. पांच किलो का मुफ्त का रेशन) जो अतीत में बडे बडे राजा-महाराजाओं के काल में चल रहा था। आज वैज्ज्ञानिक उपकरणों द्वारा जनता के हथेली पर दुनिया समायी है। एक क्लिक से जनता दुनिया की हर ख़बर जानती है, समझती है, खास कर युवा वर्ग। और इसी के कारण युवा वर्ग क्या सही क्या ग़लत समझने लगा है। और उस के मन में धीरे धीरे ग़लत काम करनेवाले अपने ही सत्ताधीशों के विरोध में प्रतिशोध की भावनाओं का आक्रोश जम जाता है। फिर एक दिन उस का ज्वालामुखी के रूप में उद्रेक होकर फट जाता है। हमारे पडोंसी देशों में यही हुवा है।

श्रीलंका में मार्च २०२२ को, बांगलादेश में अगस्त २०२४ को और अब सप्टेंबर २०२५ में नेपाल में युवा वर्ग उनके ही सत्ताधीशों का मुख़ालिफ़ी (विरोधी) होकर नेपाल में उस वर्ग के द्वारा तगडा उठाव हुवा। इतना की वहाॅं के सत्ताधिशों को देश छोडकर भागना पडा। उनकी सत्ता तितरबितर हो गयी। आज उनकी स्थिती *बडी बेअब्रू होकर निकले तेरे कुंचे से, ना इधर के रहे ना उधर के* ऐसी हो गयी। उनकों मुल्क में रहने के काब़ील नही छोडा। नेपाल में भारी हिंसा भडकी। प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली, रामचंद्र पौडेल, पुष्पकमल दहल प्रचंड, विष्णू प्रसाद पौडेल, शेर बहादूर देउबा, झालनाथ खलान ऐसे पूर्व एवं मौजूदा प्रधानमंत्री/मंत्री उस हिंसा के चपेट में आ गये। उनको जनता के द्वारा भारी मारपीट की गयी। उनके निवासस्थान आग के हवाले कर दिए। यहाॅं तक की भ्रष्ट सरकार की तरफदारी करनेवाले या न्युज चलानेवाले दप्तरों, कार्यालयों को और पत्रकारों कों भी नही बक्क्षा गया। अब बीबीसी द्वारा खबर आयी है की जेन झी (याने १५ से ३० उम्र का युवा वर्ग) के आंदोलन में कुछ असामाजिक तत्व घुस कर उनके द्वारा आंदोलन हायजॅक किया और हिंसा हुयी। हिंसा का समर्थन जेन झी भी नही करता। ऐसा कहाॅं गया है। फ़िलहाल नेपाल में शांती बनी है। सेना के जवान स्थिती पर नजर बनाये रखे है। इस जद्दोजहद्द की स्थिती में वहाॅं की सीझनेबल प्रधानमंत्री पूर्व न्यायाधीश सुशिला कार्की बनी है। जो वहाॅं जनता में प्रिय है। याने की अब नेपाल में भी तख्तापलट हो गया। आगे नये मंत्रीमंडल का विस्तार भी होना है। हमारे पडोंसी मुल्क में जो भी हिंसाऍ हुयी है, कारण जो भी हो। हम उस हिंसा की कड़ी निंदा करते है। और हम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी प्रकार की हिंसा का समर्थन नही करते। और कोई भी संवेदनशील व्यक्ती नही करेगा। अब तक की सारी नेपाल की ख़बरे सोशल प्रसार माध्यम या जिनकी रीड की हड्डी पत्रकारीता में अभी तक झुकी नही ऐसे गिनेचुने प्रिंट मिडिया की ख़बरों द्वारा नेपाल की बारीकी जानकारी पाठकों के पास पहुंची होगी। इस पर विस्तार से लिख़ने की जरूरत नही।

इधर हमारे मुल्क में हुकूमत के हुक्मरानों ने एक फतवा जारी किया, और उस में हिदायत दी गयी की, सरकार के कोई भी मंत्री-संत्री, उनके नुमाइंदे, या पार्टी के प्रवक्ता या प्रदेश अध्यक्ष को लेकर कार्यकर्ता तक कोई भी नेपाल की स्थिती पर एक लब्ज नही बोलेगा। अगर कोई कुछ अनपशनप बोलता है तो यहाॅं का विरोध भी हमारी सत्ता की गलियाॅंरो तक पहुंच सकता है। लगता है, इस आशंका से हमारे सत्ता के रथी-महारथी कई दिनों से पीडित है। शायद यही डर सता रहा होगा यहाॅं के हुक्मरानों को। क्या है साहब, जब जब हुक्मरानों ने अपने पिछले कार्यकाल या वर्तमान काल में जनता के ख़िलाफ़ कोई उल्टे-सीधे या असंवैधानिक रूप से काम किए हो और उसका अपराधबोध उनके मन में उछलता हो, तब तब उनको जनता के उद्रेक का डर या घबराहट होती है। अगर उन्होने जनता हितों में या संवैधानिक रूप से काम किए होते, तो आज उनके मन में जनता के प्रति उनके लिए डर का कारण नही होता। (यही मानवी मूल्यों के लिए प्राकृतीक नियम है।) इसिलिए अब संसद की सुरक्षा बढाने की चर्चाऍ हो रही है। साथ में खुद्द की भी। हमारे सत्ताधीशों ने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी और उनके संविधान का शुक्रिया अद़ा करना चाहिए। क्यों की, संविधान की बदौलत ही आज वे सुरक्षित है। संवैधानिक सुरक्षा कवच उनको मिला है। लेकिन यहाॅं कुछ ऐसे भी ऐहसान फ़रामोश लोग है जो संविधान को ही खत्म करने की बात करते है। वैसे तो हमारे यहाॅं की भी जनता सरकार के विरोध में आंदोलन करती आ रही है, और करती है। लेकिन संविधान के दायरे में रहकर। यहाॅं का भारतीय समाज संविधान के धागे से बंधा है। वह संविधान का विश्वास और सम्मान करता है। (कुछ अंधभक्त छोडकर) इसिलिए सर्वोच्चत्तम न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश बी. आर. गवई ने कहाॅं है की, हमें हमारे संविधान पर गर्व है। यही बात अच्छी तरह सत्ताधीशों को जाननी और समझनी होगी।

दुनिया के कुछ सत्ताधीशों ने अपने लिए आजीवन सत्तासुख भोगने के लिए व्यवस्थाऍ बना ली है। जैसे की रूस के ब्लादिमिर प्युतीन हो, चायना के शी जिनपिंग हो, या फिर नाॅर्थ कोरिया के किम जोंग उन हो, और भी मुल्क है। इन्होने आजीवन सत्ता अपने कब्जों में रहे ऐसी व्यवस्था बनाकर रखी है। उनका अनुकरण करते हुवे हमारे सत्ताधीशों के मन में भी वो ही लालसा जागने लगी। और उसी दिशा में सोचने लगे। उसके लिए वन नेशन वन इलेक्शन, एस आय आर जैसे नये नये बील और नये नये हथखंडे अजमाने का प्रयास किए जा रहा है। मगर याद रहे, यहाॅं का संविधान मजबूत है, और भारतीय समाज भी जागृत होकर अब मजबूत हुवा है। अगर सरकार ऐसा-वैसा कोई भी संविधान विरोधी काम करने की चाहत रखती है तो जनता उस में उनको कभी भी सफलता नही मिलने देंगी। यह काले पत्थर पर सफेद लकिर है। जनाब!

अशोक सवाई.

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