प्राचिन बौद्धकाल के स्वर्णयुग का क्या उपयोग यदि वर्तमान जन समस्यायें दूर ना कर सके?
☸️ अनिल रंगारी
बौद्धधर्म के उदय के बाद इसा पूर्व 6वी शदी से इ . सन 12वी शदी तक बौद्ध धर्म देश विदेश मे फैलते रहा .इस काल मे नालंदा, विक्रमशिला, तक्षशिला, उडंतपुरी , श्रीपुर जैसे बड़े बड़े शिक्षा केन्द्र/ विश्व विद्यालय स्थापित हुए थे .इन विश्वविद्यालयो मे विविध विषयों की शिक्षा दी जाती थी . देशविदेश के छात्र यहा शिक्षा लेने आते थे . लिखने की कला /लिपी भी सम्राट अशोक के काल मे सुरू हुई थी जिससे विविध शिलालेखो, ताम्रपत्रों, स्तुपों , ताड़पत्रों पर कुछ संदेश उपदेश राजाओने लिखवाये थे . सम्राट कनिष्क के समय से मूर्तिकला का विकास तेजी से हुआ जिसमे स्तुपों की, बुद्ध की, विविध बोधिसत्वों की, अनंत देविदेवताओं की, प्राणियों की मूर्तिया ,चित्र, गुफायें निर्माण की गई थी . मौर्य काल को यदी स्वर्ण युग बोले तो भी पुश्यमित्र शुंग के समय की मनुस्मृति काल से हर्षवर्धन काल मे अस्पृश्यता का काला युग निर्माण हो गया था .
प्रथम संगिती के बाद से ही बौद्ध धर्म मे विविध मतमतांरे निर्माण होने से विविध मतो- टूकाडों- निकायों मे बौद्ध धर्म बंट गया था और अंत मे 12 वी शदी तक ब्राह्मणवाद ने बौद्ध धर्म को ही भारत से पूर्णता निगल लिया था . बौध्द धर्म भारत से 12 वी शदी तक विलुप्त हो गया था . किंतु आसपास के देशों मे बौद्ध धर्म विविध मतो, पंथो मे फैल गया था और आज भी परंपरागत रूप से इन देशों मे जीवित है .
जो बौद्ध धर्म विविध मतो, रुपो- निकायों मे कुछ देशों मे फैलकर जीवित रहा क्या उसका लाभ या उपयोग बाद के प . एशिया, युरोप, पश्चिम के देशों मे नवजागरण और विकास के लिए हुआ ? कैसे ?
युरोप व पश्चिम के देशो मे इस्लाम मे मदरसो के द्वारा और ख्रिश्चन धर्म मे मिशनरी यों द्वारा सार्वजनिक शिक्षा दी जाती थी . इंग्लैंड मे मॅग्नाकार्टा कानुन इ . सन 1215 मे जारी हुआ . युरोप मे औद्योगिक क्रांती जेम्स वाट के समय से 1760–1840 इ . सन मे हुई . अमेरीकन क्रांती इ . सन 1775–1783 के बिच जार्ज वाशिंग्टन के समय हुई . फ्रेंच क्रांती इ . सन 1789–1799 के बिच हुई . रुशी क्रांती हुई, विविध वैज्ञानिक खोजे हुई , विविध लेखक विचारवंत उत्पन्न हुयें और नये युग की सुरुआत हुई .
*इन विविध देशो मे नवजागरण और क्रांतिया होने के लिए और नये युग की सुरुवात करने के लिए विविध बुद्धिस्ट देशों के परंपरागत बौद्ध दर्शन-ज्ञान का क्या कोई उपयोग हुआ था ?क्या कोई प्रभाव पड़ा था ? मुझे तो कोई उपयोग प्रभाव दिखाई नही देता . ( यदि किसी को जाणकारी हो तो बतायें) . जब इन देशो मे जागरण और क्रांतिया हुई , उनका विकास हो रहा था, साम्राज्यवाद बढ रहा था तबतक बौद्ध देशों का उनसे कोई संपर्क ही नही हुआ था . जब यह साम्राज्यवादी देश अपना व्यापार बढा रहे थे, साम्राज्य बढाने लगे तब कहीं यह बौद्ध देश उनके संपर्क मे आये . तब तक यह सारे बौद्ध देश बुद्ध- शिक्षा के बावजूद भी अत्यंत पिछड़े थे, अंधविश्वासी थे, अविकसित थे और पूनर्जन्म भवचक्र से मुक्ति मे ध्यान विपस्सना तंत्र मंत्र कर्मकाण्ड पाखण्ड मे डूबे रहते थे .आज भी वैज्ञानिक और तर्कशिलता के युग मे भी कोई भी बौद्ध देश और पढेलिखे बौद्ध भी ऐसे पाखण्ड कर्मकाण्ड अंधविश्वासो का त्याग नही करते और परंपरागत कूव्यवस्थाओं तथा तर्कहिन ज्ञान को ढोते ही जा रहे है .
जब युरोप , पश्चिम के देश अपना साम्राज्यवाद व्यापार और मिशनरी शिक्षा फैलाने इन बौद्ध देशों मे गये तब कहीं वहाँ के लोग कुछ शिक्षित जागरूक और विकास के राह पर आने लगे . साथ साथ युरोप व पश्चिम के विचारवंत इतिहासकार प्रशासक खोजकर्ता इन देशों मे प्रचलित बौद्ध साहित्य का अध्ययन करके उसका अनुवाद, प्रकाशन , प्रचार अपने देशों मे करने लगे, पुरातात्विक खोजे करने लगे और त्रिपिटक, बौद्ध साहित्य मे छिपे बुद्ध शिक्षा संदेशो के मानवतावादी नैतिक मूल्यों , अच्छी बातें सद्गुणो, तर्कसंगत विचारों से प्रभावित होने लगे .इ . सन 1806 मे सर विलियम जोन्स ने ब्राह्मी लिपी (धम्मलिपी) की उत्पत्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था . जेम्स प्रिंसेप ने इ . सन 1837 मे ब्राह्मी/ धम्म लिपी की खोज की और सांची के स्तुपों पर लिखे संदेश पढे . न्यूयार्क मे 1875 मे थिओसाफिकल सोसाइटी की स्थापना होने के कुछ वर्ष बाद ही हेनरी स्टील अलकाट सिलोन आये थे और बौद्ध साहित्य का आध्ययन करने के बाद ही जनेऊधारी बौद्ध बने थे और इ . सन 1881 मे बुद्धिस्ट कॅटेसिजम नाम से पुस्तक प्रकाशित की थी . सर एडविन अर्नोल्ड लिखित लाईट आफ एशिया प्रशिद्ध पुस्तक का प्रकाशन इ सन 1879 मे हुआ था .अनागारीक धम्मपाल भी पहले ख्रिश्चन ही थे .
यानी 13 वी शदी से 19 वी शदी तक यूरोप तथा पश्चिम देशों मे जो पूनर्जागरण नवजागरण औद्योगिक वैज्ञानिक क्रांतीया हुई और विकास हुआ उसमे बुद्धिजम तथा बुद्ध शिक्षा-संदेश की कोई भूमिका , कोई उपयोग दिखाई नही देता . वे तो बौद्ध साहित्य से 19 वी शदी तक पूर्णता अनभिज्ञ थे . *ऐसा क्यों *? जो बुद्ध शिक्षा अनेको देशो मे प्रचलित थी वह कौन सी नशा मे, कौन से अध्यात्म मे गुम हो गई थी ? पूनर्जन्म के भवचक्र से मुक्ति मे या जनता को मोक्ष- निब्बाण , अर्हत्व प्राप्ती के भ्रमजाल मे गुमराह करने के लिए ध्यान विपस्सना साधना के मकड़जाल मे ? विकास और सामाजिक उत्तरदायित्व से ये कोसों दूर क्यो थे ? आज भी जापान चिन छोडकर बाकी कितने बौद्ध देश कर्मकाण्ड पाखण्ड से मुक्त, विकसित व समृद्ध है ?
मिलिंद-प्रश्न मे तो ऐसा भी लिखा है कि विद्याधर नाम का साधक परित्राणपाठ और मंत्रो के बल से शक्ति पाकर व्यभिचार बलात्कार करता था और पकड़े जाने से पहले ही बच निकलता था या भाग जाता था . यानि परित्राणपाठ व मंत्रो मे शक्ति होने का प्रचार किया जाता था . आज के वैज्ञानिक युग मे भी विश्व मे फैली महामारी कोरोना काल सन 2020 मे भारत मे फैले कोरोना महामारी को दूर करने के लिए और लोगों को स्वस्थ होने के लिए श्रीलंका के कई भिक्खु श्रीलंका मे ही महापरीत्राणपाठ किया करते थे . अभी भी आंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गूगल मिट वेबिनार झूम मिटिंग मे प्रवचन कर्ता भिक्खु मंत्रो मे , सुत्तपाठ मे, परित्राणपाठ मे शक्ति होने का , कल्याण होने का प्रचार करते है . शेकड़ो भिक्खु जनता का धन अनावश्यक लूटाकर पदयात्रा , तीर्थाटन करते है, एक एक , दोदो माह के विपस्सना ध्यान शिबिरे करते है .क्या यह जनता के दुःख निवारण के, जनकल्याण के उपाय/तरीके है ? क्या ऐसा धर्म- प्रचार जन समस्याए निवारण और सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने का तरीका है ? क्या बुद्ध ने ऐसा बौद्ध धम्म दिया था ?
धन्य है डॉ . बाबासाहेब आंबेडकर जिन्होंने अथक परिश्रम से “बुद्ध एण्ड हिज धम्म” ग्रंथ लिखकर और बौद्ध धर्म पर विविध भाषण, उपदेश देकर जनता को परंपरागत पाखण्ड कर्मकाण्ड अंध विश्वास देवी देवताओं को त्यागने को कहा और सही तर्कसंगत, जन कल्याणकारी , सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने का बौद्ध धम्म दिया है . आज कितने लोग/ देश है जो विश्व मे धम्मराज्य की स्थापना करने के लिए बुद्ध के 1. प्रत्येक ने सदाचार का पालन कर सही नैतिकतावादी बनना, 2. लोगों को नैतिकता का व सही प्रशासक बनने का प्रशिक्षण देने के लिए नैतिक बुद्धिवादी कुशल प्रशिक्षक बनना, 3. अनैतिक शासको प्रशासको व दोषी लोगो को दंड देकर न्याय समता का राज्य स्थापित करने नैतिक- निर्दोष शासक प्रशासक बनना , इन त्रयी सिद्धांत पर चलते है ?
पुराणों मे बुद्ध, पेज 56–57 सम्यक प्रकाशन दिल्ली. इसमे डॉ . सुरेंद्र अज्ञात जी लिखते है- 80 वर्ष की परिपक्व अवस्थातक उस युग मे , जब यातायात के साधन भी बहुत अविकसित हालत मे थे, बुध्द एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाकर लोगों को उनकी समस्याओं के समाधान सुझाते रहे है। क्या यह इस बात का प्रमाण नही कि बुध्दइज्म जीवन के लिए, श्रेष्ठ व उच्च स्तरिय जीवन के लिए है, न कि आत्महत्या के लिए, जीवन को नकारने के लिए। क्या बौद्ध सभ्यता कभी अस्तित्व मे आ सकती थी यदि श्रेष्ठ व उच्चत्तर जीवन बुध्दइज्म का लक्ष्य न होता? वह सभ्यता व संस्कृति जिन स्तंभो पर खड़ी हुई, जिस तरह की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था की ओर उसका झूकाव था, उसे यदि रेखांकित नही करते, वर्तमान मे यदि उसकी कोई प्रासंगिकता उभारकर सामने नही लाते तो बुद्धइज्म की केवल प्राचिन महिमा गाने से कुछ हासिल नही होगा।
यदि बुद्धइज्म मे वास्तव मे कोई गुण है तो उसे वर्तमान मे कारगर तौर पर अपना वह रूप दिखाना ही होगा। यह चुनौति है वर्तमान की, इसे हमे स्वीकार करना ही होगा। इसे कारगर सफल करने मे ही बुद्धइज्म का भविष्य निहित है। अनिल रंगारी
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