त्रिविध पावन पूर्णिमा:बुद्ध पूर्णिमा (वैशाख पूर्णिमा )

[बुद्ध पूर्णिमा की ढेर सारी मंगल कामनाएँ।
सभी प्राणी सुखी हो, निरोग हो, निर्भय हो।]
अद्भुत संयोग
[1] सिद्धार्थ राजकुमार का जन्म वैशाख पूर्णिमा के दिन लुम्बनि वन में साल वृक्ष की छाया में, प्रकृति की गोद में हुआ। यह प्रथम संयोग था।
महान सम्राट अशोक अपने राज्याभिषेक के 20वें वर्ष में भगवान बुद्ध की जन्म-स्थली लुम्बिनी के शोलोद्यान में पहुंचा और अपनी धम्मयात्रा की स्मृति स्वरूप उसने वहां एक गोलाकार भव्य स्तम्भ लगवाया स्तम्भ पर अंकित अभिलेख में लिखवाया-
” देवानं पियेन पियदसिना
लाजिना वीसतिवसामिसितेन
अतन आगाच महीयते
हिदबुधे जाते साक्यमुनीति
सिलाविगड़ भी च कालपित
सिलाथमे’व उपपापिते- हिद
भगवं जाते’ति लुम्मनिगामे
उबलिके कटे अठभागिए च”
अर्थात-
1) देवानंद प्रिय प्रियदर्शी (अशोक) ने राज्या के बीसवें वर्ष यहां आकर पूजा की,
2) यहां शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म हुआ था,
3) उसने वहां शिलाभिति बनवाई और शिला- स्तम्भ स्थापित किया,
4) क्योंकि भगवान ( बुद्ध ) का लुम्बिनी ग्राम में हुआ था,
5) इसलिए इस ग्राम को बलिकर ( tax ) से रहित कर दिया और उन पर भूमिकर का केवल आठवां भाग नियत किया गया।
[2] सिद्धार्थ राजकुमार के गृह त्याग, महाभिनिष्क्रमण के बाद ६ वर्ष की साधना के बाद उरूवेला, वर्तमान बोधगया में वैशाख पूर्णिमा की रात को पिपल के वृक्ष तले सम्यक संबोधि प्राप्त हुई। ज्ञान की प्राप्ति भी प्रकृति की गोद में। यह दुसरा संयोग था।
उस समय उनकी आयु थी ३५ साल ।
झान की प्राप्ति के कारण वे बुद्ध कहलाये।
बोघि की प्राप्ति के समय बुद्ध के हर्षोल्लास- उदान कथन आज भी झानी मनुष्यों के लिए महत्वपूर्ण है।
“अनेकजातिसंसारं, सन्धाविस्सं अनिब्बिसं ।
गहकारकं गवेसन्तो, दुक्खा जाति पुनप्पुनं ।।”
अर्थात :
बिना रूके अनेक जन्मों तक इस संसार में दौड़ता रहा । (इस काया रूपी) गृह को बनाने वाले को खोजते पुन: पुन: दु:ख- जन्म में पडता रहा ।
“गहकारक ! दिट्ठोसि ,
पुन गेहं न काहसि ।
सब्बा ते फासुका भग्गा, गहकूटं विसंङ्खितं ।
विसङ्खार गतं चित्तं, तण्हानं खयमज्झगा ।”
अर्थात :
हे गृहकारक ! ( घर बनानेवाले) ,
मैंने तुझे देख लिया,
(अब) फिर तू घर नहीं बना सकेगा ।
तेरी सभी कडियां भग्न हो गयीं,
गृह का शिखर गिर गया ।
चित्त संस्कार रहित हो गया ।
तृष्णाओं का क्षय हो गया हैं।
भवचक्र का कारण और भवचक्र से निवारण, यही उदान में उद्घोषित हुआ है।
इस उदान से स्पष्ट होता है कि जन्म मरण के फेरे बनाने वाला कोई नहीं है। जन्म मरण के फेर तृष्णा ही है। उन तृष्णा का समुच्छेद हो गया तो जन्म- मरण के टल।
बुद्ध ने देखा यह जन्म-मरण का चक्र दु:खदायक है। बुद्ध ने देखा की दु:ख है, दु:ख का कारण है, दु:ख का निवारण है दु:ख निवारण के लिए मार्ग है। इन चार मूलभूत कारणों की खोज बुद्ध की मौलिक खोज थी, अपने ध्यान (विपश्यना) के बल पर सत्य खोजा गया था। इन चार सत्यों को बौद्ध ग्रंथों में अरियसत्य से जाना जाता है और दु:ख मुक्ति के मार्ग को अरिय अष्टांगिक मार्ग कहते है।
वहीं पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्ध एक सप्ताह विमुक्ति का आनंद लेते रहे। उस स्थान को आज वज्रासन कहते है क्योंकि सिद्धार्थ गौतम ने उसी स्थान पर अधिष्ठान लिया था – ” चाहे मेरी त्वचा, नसें और हड्डीयां ही बाकी रह जाएं,चाहे मेरा सारा मांस और रक्त शरीर से सुख जाए किन्तु बिना ज्ञान प्राप्त किए मैं इस आसन का त्याग नहीं करूंगा।”
सम्बोधि प्राप्त होने के बाद सम्यक सम्बुद्ध ने वहां आसपास सात सप्ताह बिताए। बौद्ध साहित्य में सात सप्ताहों का वर्णन निम्न प्रकार मिलता है-
पठमं बोधि पल्लकं,
दुतियंच आनम्मिसं,
ततियं चंकमनं सेट्ठं,
चतुत्थं रत्नाघरं,
पंचमं अजपालंच,
मुचलिन्देन छट्ठमं,
सत्तमं राजायतनं,
वन्दे तं मुनिसेवितं।
यह सात पवित्र स्थान धम्म संवेग जगाते है। जो कोई श्रद्घालु बौद्ध उन सात स्थान पर, जहां-जहां भगवान के चरण पडे थे, वह भावविभोर हो जाता है। ध्यानी विपश्यी बौद्ध उपासक/ उपासिका जब “रत्न घर” के सामने बैठकर ध्यान करते है तब उन्हें प्रतीत्यसमुत्पाद का अनुभव होता है।
महाबोधि महाविहार की पवित्र भूमि बौद्धों के लिए महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है।
[3] तीसरा अद्भूत संयोग हुआ कुशीनगर में। तब तथागत बुद्ध की आयु ८० हुईं थी। तथागत महापरिनिर्वाण को प्राप्त करने वाले थे। उस दिन भी वैशाख पूर्णिमा थी। वही प्रकृति की गोद में पूर्णिमा की रात बितने के कुछ समय पहले दो साल वृक्ष के बीच महापरिनिर्वाण में प्रवेश किया।
बुद्ध ने अंतिम क्षणों में जो कहा वह संसार के दु:ख दूर करने का उपाय है।
तथागत बुद्ध ने कहा –
” हन्द दानि भिक्खवे !
आमन्तयामि वो वयधम्मा संखारा ,
अप्पमादेन सम्पादेथाति ।”
अर्थात
हन्त ! भिक्खुओ, अब तुम्हें कहता हूँ, ‘ संस्कार नाशमान हैं ।’अप्रमाद के साथ (निर्वाण) प्राप्त करो ।”
उन तीनों अद्भुत ऐतिहासिक संयोग के कथन से सब का मंगल हो।
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स।
बुद्ध सासनं चिरं तिट्ठतु।
नमो बुद्धाय
रमेश बौद्ध (बैंकर
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